सोमवार, 17 मार्च 2014

हवस को है निशात-ए-कार क्या क्या..





हवस को है निशात-ए-कार क्या क्या,
न हो मरना तो जीने का मज़ा क्या.

प्रलोभन व्यस्त रखता है तो क्या है,
कि मर मिटने में जीने का मज़ा है.

तजाहुल पेशगी से मुद्दआ क्या?
कहाँ तक ऐ सरापा नाज़ क्या क्या?

कहाँ तक जान कर अनजान होगे?
समझ कर नासमझ कब तक बनोगे?

नवाज़िशहा-ए-बेजा देखता हूँ,
शिकायत-हा-ए-रंगीं का गिला क्या.

परायों पर कृपा तेरी जो देखूँ,
बुरा क्या जो शिकायत कर ही बैठूँ?

निगाहे-बेमहाबा चाहता हूँ,
तग़ाफ़ुल्हा-ए-तमकीं-आज़मा क्या.

मैं चाहूँ इक नज़र भरपूर तो क्यूँ,
मुझे देखे भी अनदेखी करे यूँ.      















बुधवार, 5 मार्च 2014

स्थानांतरण और मौत...


             मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किये हुए..........
     मैं ने एक अर्से से कुछ नया पोस्ट नहीं किया. आखिरी पोस्ट 19 फ़रवरी को किया था. उसके बाद से कुछ ऐसा   व्यस्त हुआ कि कुछ पोस्ट करने का समय नहीं मिल सका. मेरा स्थानांतरण इलाहाबाद से वाराणासी हो गया है और मैं अभी आधा यहाँ, आधा वहाँ हूँ. अर्थात पत्नी तथा घर इलाहाबाद में और मैं वाराणासी में.
     इसके आगे कुछ कहने से पहले ये बताना ज़रूरी है कि मैं रेलवे में काम करता हूँ और स्थानांतरण मेरी ज़िंदगी का हिस्सा है. इलाहाबाद में मैंने ढाई साल गुज़ारे जो मेरे लिये एक सुखद अनुभव रहा. सोचता हूँ कि स्थानांतरण भी काफ़ी कुछ मौत की तरह होता है. दोनों में निम्न्लिखित समानतायें पायी जाती हैं:
  1.  इसका होना कभी भी सम्भव है परंतु कोई भी इसके लिये तैयार नहीं रहता है.
  2.  पद भार छोड़ते ही सारी शक्तियाँ छिन जाती हैं (शरीर बेजान हो जाता है).
  3.  साथी लोग विदाई समारोह आयोजित करने में जुट जाते हैं. जाने वाले के जाने पर अपनी अप्रसन्नता व्यक्त करते हैं पर मन ही मन प्रसन्न होते हैं कि उसके जाने से प्रमोशन का रास्ता खुला. (परिजन रोते बिलखते हैं और क्रिया-कर्म का आयोजन करते हैं. जाने वाले की तारीफ करते हैं पर मन ही मन उसके जाने से ख़ुश होते हैं कि उसकी धन-सम्पत्ति अब उन्हें मिलेगी). 
  4.  एक जानी पहचानी जगह (संसार) पीछे छोड़ कर एक अनजान मंज़िल (परलोक) की ओर जाना पड़ता है.
  5.  पुरानी जगह के साथी कुछ ही दूर तक, अर्थात स्टेशन/एयर्पोर्ट (शमशान/क़ब्रस्तान) तक साथ आते हैं. उसके बाद का सफ़र अकेले ही करना पड़ता है.
  6.  मालूम नहीं होता कि नई जगह पर सुख मिलेगा (स्वर्ग) या दुख (नर्क).

ज़ौक़ ने क्या ख़ूब कहा है:
       लायी हयात आये, क़ज़ा ले चली चले,
       अपनी ख़ुशी न आये, न अपनी ख़ुशी चले.
      
       बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे,
       पर क्या करें जो काम न बे दिल लगी चले.

अगली पोस्ट नये रूपांतरण के साथ जल्द ही .......