गुरुवार, 30 जनवरी 2014

ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के..

मैं मर जाऊँ मेरे दुश्मन ही जी लें 
ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के,
हम रहें यूँ तश्नः-लब पैग़ाम के.

मेरे दुश्मन तुम्हारे संग पी लें,
मैं मर जाऊँ, मेरे दुश्मन ही जी लें.

ख़स्तगी का तुम से क्या शिकवा कि ये,
हथकंडे हैं चर्ख़-ए-नीली फ़ाम के.

सुनाऊँ हाल पतला अब तुम्हें क्या,                                                      
मेरी क़िस्मत में हसरत थी हमेशा.

रात पी ज़मज़म पे मय और सुबह्दम,
धोये धब्बे जामः-ए-एहराम के.

तीर्थ में भी पाप कर सोते रहे,
 जागने पर पाप को धोते रहे.



दिल को आँखों ने फँसाया क्या मगर,
ये भी हल्क़े हैं तुम्हारे दाम के.

मेरी आँखें भी तुम्हारे जाल हैं,
तुम को देखा, दिल फँसा, बेहाल हैं.

सोमवार, 27 जनवरी 2014

दाएम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूँ मैं (शेष भाग)

किस वास्ते अज़ीज़ नहीं जानते मुझे?
लाल-ओ-ज़मुर्रुदो-ज़र-ओ-गौहर नहीं हूँ मैं

क्यूँ नहीं रखते मुझे अपने क़रीब,
हूँ नहीं हीरा जवाहर मैं ग़रीब.


रखते हो तुम क़दम मेरी आँखों से क्यों दरेग़
रुतबे में मेहर-ओ-माह
 से कमतर नहीं हूँ मैं


मेरी पलकों पर नहीं रखते क़दम,
मुझ को आँका चांद तारों से भी कम.


करते हो मुझको मनअ़-ए-क़दम-बोस किस लिये
क्या आसमान के भी बराबर नहीं हूँ मैं
?


रोकते हो क्यूँ चरण-स्पर्श से ?                                                       
क्या मैं कुछ कम हूँ तुम्हारे फ़र्श से ?

'ग़ालिब' वज़ीफ़ाख़्वार हो, दो शाह को दुआ
वो दिन गये कि कहते थे "नौकर नहीं हूँ मैं"

हो गये नौकर, उड़ा सारा ग़ुरूर,
हाथ बांधो और बोलो “जी हुज़ूर”

रविवार, 26 जनवरी 2014

दाएम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूँ मैं

दाएम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूँ मैं
ख़ाक ऐसी ज़िन्दगी पे कि पत्थर नहीं हूँ मैं

क्यूँ तेरे क़दमों में मेरा सर नहीं,
क्यूँ तेरी चौखट का मैं पत्थर नहीं

क्यूँ गर्दिश-ए-मुदाम से घबरा न जाये दिल?
इन्सान हूँ
, पियालः-ओ-साग़र नहीं हूँ मैं.

क्यूँ ना चकरा जाऊँ, मैं हाला नहीं,
क्या करूँ इंसान हूँ प्याला नहीं.

या रब! ज़माना मुझ को मिटाता है किस लिये
लौह-ए-जहां
 पे हर्फ़-ए-मुक़र्रर नहीं हूँ मैं

मिट रहा हूँ, सोच कर स्तब्ध हूँ,
क्या मैं भूले से लिखा इक शब्द हूँ?

हद चाहिये सज़ा में उक़ूबत के वास्ते
आख़िर गुनाहगार हूँ
, काफ़िर नहीं हूँ मैं

हो सज़ा में कष्ट की सीमा कहीं,
हूँ तो मुजरिम, पर मैं विद्रोही नहीं.      (शेष शेर अगले पोस्ट में) 

सोमवार, 20 जनवरी 2014

बाज़ीचः-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे..(शेष भाग)

नफ़रत का गुमाँ गुज़रे है, मैं रश्क से गुज़रा 
क्योंकर कहूँ
, लो नाम न उनका मेरे आगे 

ले नाम तेरा कोई भी फूटें जो मेरे भाग्य,
संदेह घृणा का न हो, ईर्ष्या का करूँ त्याग

ख़ुश होते हैं, पर वस्ल में, यूँ मर नहीं जाते 
आई शबे-हिजराँ
 की तमन्ना, मेरे आगे 

मरने की तमन्ना जो किया था वियोग में,
लो! पूरी हुई आज मिलन के सुयोग में

है मौज-ज़न इक क़ुल्ज़ुमे-ख़ूँ  काश! यही हो 
आता है अभी देखिये क्या-क्या
, मेरे आगे 

रक्त-अश्रु की धारा से बना रक्त का सागर,
पर अब भी छलकता है मेरे शोक का गागर

गो हाथ को जुम्बिश  नहीं, आँखों में तो दम है 
रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना
, मेरे आगे

हाथों में नहीं जान पर आँखों में बची है,
मत जाम हटाओ अभी, क्या जल्दी मची है
 
हमपेशा-ओ-हम्मशरब-ओ-हमराज़
 है मेरा 
'ग़ालिब' को बुरा क्यों कहो अच्छा, मेरे आगे

पीता है मेरे साथ  वो दिलदार मेरा है,
ग़ालिब को बुरा मत कहो वो यार मेरा है



रविवार, 19 जनवरी 2014

मिर्ज़ा ग़ालिब के बारे में...



मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ान ग़ालिब आगरा में 1797 ई. में पैदा हुए. 1869 ई. में दिल्ली में उनकी मृत्यु हुई और वहीं दफ़्न हुए. ग़ालिब के पिता का नाम मिर्ज़ा अब्दुल्लाह बेग ख़ान और दादा का नाम मिर्ज़ा क़ोक़न बेग ख़ान था. मिर्ज़ा ग़ालिब की पत्नी उमराओ बेगम, लोहारू के नवाब इलाही बख़्श की बेटी थीं. मिर्ज़ा के सात बच्चे हुए पर सभी बचपन में ही गुज़र गये.
उनके मज़ार की तस्वीर नीचे प्रस्तुत है.





क्या ख़ूब कह गये:
नज़र में है हमारी जादः-ए-राहे-फ़ना ग़ालिब,
कि ये शीराज़ः है आलम के अज्ज़ा-ए-परेशाँ का.

शेर का रूपांतरण :
मिटूंगा मैं, कि होना “एक” को “प्रत्येक” करता है,
तो मिट जाना ही खंडित सृष्टि को फिर एक करता है




शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

बाज़ीचः-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे

बाज़ीचः-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे
(इस रचना के कुछ अन्य शे'र अगली पोस्ट में....)

चलने से मेरे धूल के उठते हैं बवंडर


बाज़ीचः-ए-अत्फ़ाल है दुनिया, मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा, मेरे आगे

बच्चों का खेल, जग की यह काया, हूँ जानता,
दिन-रात जो भी देखूँ , वो माया हूँ मानता.

जुज़ नाम, नहीं सूरत-ए-आ़लम मुझे मंज़ूर 
जुज़ वहम
, नहीं हस्ती-ए-अशया, मेरे आगे
                                              
संसार का अस्तित्व तो बस, है भी नहीं भी,
क़दमों में मेरे शीष नवाता है समुंदर
भ्रम है वो हर इक चीज़ जो दिखती है कहीं भी. 

होता है निहाँ गर्द में सहरा मेरे होते 
घिसता है जबीं
 ख़ाक पे दरिया, मेरे आगे 

चलने से मेरे धूल के उठते हैं बवंडर,
क़दमों में मेरे शीष नवाता है समुंदर 

सच कहते हो, ख़ुदबीन-ओ-ख़ुदआरा हूँ,क्यूँ न हूँ 
बैठा है बुत-ए-आईनः-सीमा, मेरे आगे 

मैं ख़ुद को निहारूँ कि मेरे भाग्य हैं जागे,
दर्पण की तरह तू जो है बैठा मेरे आगे.

फिर देखिये अन्दाज़-ए-गुलअफ़्शानी-ए-गुफ़्तार 
रख दे कोई पैमाना-ओ-सहबा
, मेरे आगे 

मद्यपान का सामान मेरे सामने ले आओ,
फिर मुख से मेरे फूल झड़ें ना तो बताओ



सोमवार, 13 जनवरी 2014

आलोचना....

Facebook के माध्यम से निम्न्लिखित आलोचना प्राप्त हुई थी.  
“Ghalib ahmaq nahin tha. Apni aqalmandi se uske shayri ka kabada nikalne walon se hoshiiyaar”


आलोचक ने आलोचना के साथ साथ अपनी नाराज़गी का भी कड़े शब्दों में इज़्हार करते हुए मेरे जैसे रूपांतरण करने वाले को अहमक़ की उपाधि से सुशोभित किया है. मैं आलोचक की भावनाओं की क़द्र करता हूँ. कोई ग़ालिब के बारे में इतना संवेदनशील हो कि ग़ालिब की किसी रचना के रूपांतरण को उनकी “शायरी का कबाड़ा निकालना” समझे तो इसमें कोई ताज्जुब नहीं है. इतिहास गवाह है कि अनुवादकों को अक्सर कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा है. बहुत पह्ले की बात है कि बंगाल के एक सूफ़ी ने कुछ सूफ़ी साहित्य का अनुवाद फ़ारसी से बंगाली में किया था जिसकी कड़ी आलोचना हुई. अनुवादक ने लिखा है उसे मालूम नहीं कि उसके काम को लोग अच्छा मानेंगे या बुरा पर उसने इस काम को अच्छा समझ के किया है और करता रहेगा. मैं भी रूपांतरण का काम अच्छा समझ के कर रहा हूँ और करता रहूंगा. इतना ज़रूर कह्ना चाहूंगा कि ग़ालिब की बे-इंतहा इज़्ज़त करता हूँ और यही कारण है कि मैंने उनके काम को उनके चाहने वालों तक पहुंचाने के लिये इस काम का बीड़ा उठाया है. ग़ालिब के संवेदनशील प्रशंसकों से क्षमा याचना करते हुए अपने कार्य को करते रह्ने की प्रतिबद्धता दोहराता हूँ.  

शनिवार, 11 जनवरी 2014

है किस क़दर हलाक-ए फ़रेब-ए वफ़ा-ए गुल

है किस क़दर हलाक-ए फ़रेब-ए वफ़ा-ए गुल

( पिछ्ली पोस्ट से आगे)

(Original काले तथा रूपांतरण लाल रंग में)

पिछ्ली पोस्ट में पाँच शे'र प्रस्तुत किये थे. उसी रचना के शेष चार शे'र का रूपांतरण प्रस्तुत है.
मेरी इस तुच्छ कोशिश का जो उत्साह्वर्धन मुझे मिला उसके लिये मैं सदैव आभारी रहूंगा. एक आलोचना भी फेसबुक के माध्यम से प्राप्त हुई जिसके लिये भी आभारी हूँ. आलोचना तथा उस पर अपनी प्रतिक्रिया अगली पोस्ट में....


आज़ादी-ए नसीम मुबारक कि हर तरफ़
टूटे पड़े हैं हलक़ा-ए दाम-ए हवा-ए गुल

हो धन्य वो स्वतंत्रता जो इस पवन में है,
टूटे  सुमन-सुगंध के ताले चमन में हैं .

जो था सो मौज-ए रंग के धोखे  में मर गया
ऐ वाए नाल:-ए- लब-ए ख़ूनीं-नवा-ए गुल

ख़ूनी विलाप पुष्प को रंगीन करे है,
हर कोई फिर क्यूँ  रंग पे पुष्पों  के मरे है.

ख़ुश-हाल उस हरीफ़े-सियह-मस्त का कि जो
रखता हो मिस्ल-ए साया-ए गुल सर ब
पा-ए गुल

है धन्य वो बद्मस्त जो प्रेयसी  का बन के दास,
छाया की तरह रखता है सर भी चरण के पास.

सतवत से तेरे जलव:-ए हुस्न-ए ग़यूर की
ख़ूं है मिरी निगाह में रंग-ए अदा-ए गुल

मेरे हृदय पे छाया तेरे रूप  का प्रताप,
अन्यत्र देखना  भी समझता हूँ  घोर  पाप

मुझे लगता है कि अंतिम शे'र में प्रेम का वो रूप नज़र आता है जो किसी भक्त या सूफ़ी 
की आराधना की बुनियाद होता है.

शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

है किस क़दर हलाक-ए फ़रेब-ए वफ़ा-ए गुल

है किस क़दर हलाक-ए फ़रेब-ए वफ़ा-ए गुल

(Original काले तथा रूपांतरण लाल रंग में)

है किस क़दर हलाक-ए फ़रेब-ए वफ़ा-ए गुल
बुलबुल के कार-ओ-बार पे हैं ख़ंदः-हाए-गुल
बुलबुल का सोचना कि उसे गुल वफ़ा करे,
ये देख कर हंसे न कोई गुल तो क्या करे.

ईजाद करती है उसे तेरे लिये बहार
मेरा रक़ीब है नफ़स-ए  इत्र-सा-ए गुल
तुझ को लुभा रही है वो इतना कि मैं जलूं,
फूलों कि ख़ुश्बू ले के बहार आये वर्ना क्यूँ.

शरमिंदा रखते हैं मुझे बाद-ए बहार से
मीना-ए बे-शराब-ओ-दिल-ए बे-हवा-ए गुल
ना जाम में शराब ना दिल में कोई उमंग,
ऐसी बहार से कहो मुझको न करे तंग.

तेरे ही जलवे का है यह धोका कि आज तक
बे-इख़तियार दौड़े है गुल दर क़फ़ा-ए गुल
खिलते ही जा रहे हैं लगातार अब तलक,
फूलों को है तमन्ना दिखे तेरी एक झलक.

ग़ालिब मुझे है उस से हम-आग़ोशी आरज़ू
जिस का ख़याल है गुल-ए जेब-ए क़बा-ए गुल
ग़ालिब मेरा नसीब कभी उस से मिलाये,
हैं किसकी याद फूल भी सीनों में छुपाये

(इस रचना के कुछ शेर रूपांतरण के लिये शेष)


बुधवार, 8 जनवरी 2014

शब ख़ुमार-ए-शौक़-ए-साक़ी रस्तख़ेज़-अन्दाज़ा था

                        (Original शे'र काले रंग तथा रूपांतरण लाल रंग में)                       

शब ख़ुमार-ए-शौक़-ए-साक़ी रस्तख़ेज़-अन्दाज़ा था
ता मुहीत-ए-बादा
 सूरत-ख़ाना-ए-ख़मियाज़ा  था

रात साक़ी के लिये, बस, थी नहीं महफ़िल में ताब,
ले रही अंगड़ाइयाँ थी, बस, समुंदर में शराब

यक क़दम वहशत से दरस-ए-दफ़तर-ए-इमकां
 खुला
जादा
 अजज़ा-ए-दो-आ़लम-दश्त का शीराज़ा था

बावलेपन में बढ़ाये पग जो रेगिस्तान को,
दिव्य दर्शन का मिला तब मार्ग मुझ अनजान को.

मान-ए-वहशत-ख़िरामीहा-ए-लैला
 कौन है
ख़ाना-ए-मजनूं-ए-सहरागिर्द
 बे-दरवाज़ा था
(इस शे'र के दो रूपांतरण किये हैं)

क्यूँ न निकली घर से लैला लाँघ सीमायें सभी,
बे पता मजनूँ फिरे था तोड़ बाधायें सभी.

क्यूँ नहीं ले लेता आलिंगन में वो पर्मात्मा,
बे पते के ढ़ूँढ़्ती फिरती है जिसको आत्मा.

पूछ मत रुसवाई-ए-अन्दाज़-ए-इस्तिग़ना-ए-हुस्न
दस्त
 मरहून-ए-हिना रुख़सार रहन-ए-ग़ाज़: था

रूप की यूँ आत्म-निर्भरता हुई बदनाम है,
उसको मेहंदी और कुमकुम से भला क्या काम है?

नाला-ए-दिल ने दिये औराक़-ए-लख़त-ए-दिल ब बाद
यादगार-ए-नाल: इक दीवान-ए-बे-शीराज़:
 था

दिल के टुकड़े पृष्ठ थे एक काव्य संग्रह के कभी,
कर दिये बर्बाद मेरे दिल की आहों ने सभी


ग़ालिब को कौन नहीं जानता?

ग़ालिब को कौन नहीं जानता ? बक़ौल ग़ालिब:

होगा कोई ऐसा भी कि ग़ालिब को ना जाने,
शायर तो वो अच्छा है प-बद्नाम बहुत है.

         ग़ालिब की शायरी ही क्या उर्दू के अन्य साहित्य के साथ भी यह समस्या है कि अब उसको समझने वाले कम होते जा रहे हैं. उर्दू लिपि के पढ़ने वाले कम हैं परंतु उर्दू भाषा को पसंद करने वालों की कोई कमी नहीं है.
          एक समय था जब फारसी भाषा में उपलब्ध साहित्य के एक भंडार का अनुवाद उर्दू में किया गया. मैं समझता हूँ आज उर्दू से हिंदी में अनुवाद की ज़रूरत है. इसी ज़रूरत को पूरा करने के उद्देश्य से मैंने ग़ालिब की शायरी के रूपांतरण की जुर'अत की है.
           सवाल यह है कि ग़ालिब ही क्यूँ? तो भई वो इसलिये कि ग़ालिब को समझना किसी हद तक नामुम्किन नहीं तो मुश्किल ज़रूर है. ग़ालिब की शायरी के भावार्थ का वर्णन कई मशहूर कवियों द्वारा किया गया है और बहुत अच्छा किया गया है पर केवल भावार्थ शेर की खूबसूरती को प्राप्त करने में अकसर असफल सिद्ध होता है. इसलिये मेरी यह कोशिश है कि कविता के भाव कविता के ही रूप में हिंदी में व्यक्त करूँ. अगर इस कोशिश में तनिक भी कामयाबी मिली तो अपने आप को भाग्यशाली समझूंगा.
      मिसाल के तौर पर एक शेर और उसका हिंदी रूप (लाल रंग में) नीचे प्रस्तुत है:
 शब ख़ुमारे शौक़-ए-साक़ी रुस्तख़ेज़-अंदाज़ः था,
 ता मुहीत-ए-बादः सूरतख़ानः-ए-ख़मयाज़ः था.

रात साक़ी के लिये, बस, थी नहीं महफ़िल में ताब,
ले रही अंगड़ाइयाँ थी, बस, समुंदर में शराब.


तो इसी क्रम में आगे आगे देखिये होता है क्या......