गुरुवार, 26 जून 2014

विरोधाभास और ग़ालिब


ग़ालिब ने अपनी शायरी में विरोधभास को बड़ी ख़ूबसूरती से इस्तेमाल किया है. बल्कि अगर यह कहा जाये कि ग़ालिब की शायरी की मुख्य विशेषता यही विरोधाभास का इस्तेमाल है तो ग़लत नहीं होगा. उदाहरण के तौर पे :
“दर्द मिन्नतकशे दवा ना हुआ,
मैं ना अच्छा हुआ बुरा ना हुआ.”
यहाँ “दर्द” और “दवा” को एक जगह तथा “अच्छा” और “बुरा” को दूसरी जगह पर इकट्ठा कर के एक ख़ास असर पैदा कर दिया है.
एक शेर में कहा है:
“ इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया,
 वर्ना हम भी आदमी थे काम के “
निकम्मा यानी कि आशिक़ होने से पहले जनाब बड़े काम के आदमी थे कि नहीं ये तो किसे मालूम पर शेर की ख़ूबसूरती से इनकार नहीं किया जा सकता.
  
वैसे देखा जाये तो जीवन भी विरोधाभास से भरा पड़ा है. उदाहरणत:
- शरीर मिट जाने वाला है पर आत्मा बाक़ी रहने वाली है
- इंसान जितना ज़्यादा ख़ुशी के पीछे भागता है उतना ही नाख़ुश रहता है
- भीड़ से भरी हुई बस में चढ़ने के तुरंत बाद आदमी मुड़ कर अगले आदमी को चढ़ने से रोकता है ये           कहते हुए कि अब बस में जगह नहीं है
-घूस दे कर अपना काम करवाने के बाद आदमी भ्रष्टाचार को कोसने लगता है
-अपने गुट के दबंग को हीरो और दूसरे गुट के दबंग को ग़ुंडा बताता है
-और सबसे बड़ी अचम्भे की बात ये कि आदमी अपनी मौत को भूल जाता है
हैरत इलाहाबादी ने क्या ख़ूब कहा है:
“ आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं,
 सामान सौ बरस के हैं, पल की ख़बर नहीं “

बुधवार, 25 जून 2014

न गुले नग़मा हूँ.....(शेष भाग)

नहीं दिल मे मेरे वो क़तरः-ए-ख़ूँ,
जिस से मिज़्गाँ न हुई हो गुलबाज़.

रक्त की बूंद तक नहीं बाक़ी,
मेरी पलकों से जो नहीं झाँकी.

ऐ तेरा ग़मज़ा यक क़लम अंगेज़,
ऐ तेरा ज़ुल्म सर-ब-सर अंदाज़.

क्रोध तेरा जो मार डाले है,
तेरा श्रंगार ही बचा ले है.

तू हुआ जलवागर मुबारक हो,
रेज़िशे सज्दा-ए-जबीने नियाज़.

तू प्रकट हो गया, बधाई है!
मैंने चरणों की धूल पाई है.

मुझको पूछा तो कुछ ग़ज़ब न हुआ,
मैं ग़रीब और तू ग़रीब नवाज़.

की जो मुझ पर कृपा तो क्या अचरज,
एक मैं हीन और तू दिग्गज.

असदुल्लाह ख़ाँ तमाम हुआ,
ऐ दरेग़ा वो रिंदे शाहिद बाज़.

असदुल्लाह ख़ाँ समाप्त हुआ,
प्रेम रस पान जिस पे व्याप्त हुआ.

रविवार, 22 जून 2014

न गुले नग़मा हूँ.....

न गुल-ए-नग़मा हूँ ना परदा-ए-साज़,
मैं हूँ अपनी शिकस्त की आवाज़.
                                         
ना कोई राग हूँ न कोई तान,
टूटना ही हुई मेरी पहचान.

तू और आराइशे ख़ुम-ए-काकुल,
मैं और अंदेशःहा-ए-दूर दराज़.

तू है और ज़ुल्फ की सजावट है,
मैं हूँ और बिजलियों की आहट है.

लाफ़े-तम्कीं फ़रेबे सादा दिली,
हम हैं और राज़हा-ए-सीना गुदाज़.

प्रेम का दर्प ! मूर्खता दिल की !
ताड़ सा बोझ और जगह तिल की.


हूँ गिरफ़्तारे उल्फ़ते सय्याद,
वर्ना बाक़ी है ताक़ते परवाज़.

प्रेम बंधन की ले लिया भिक्षा,
अब नहीं है उड़ान की इच्छा,

वो भी दिन हो कि उस सितमगर से,
नाज़ खींचूँ बजाये हसरते नाज़.

उसके नख़रे उठाऊँ, वो दिन आये
सच हो सपना मेरा कभी तो हाए!          (शेष अगली पोस्ट में)