रविवार, 23 फ़रवरी 2020

ग़ालिब का पहला उर्दू कलाम



ग़ालिब का पहला उर्दू कलाम

ग़ालिब को बचपन में पतंग उड़ाने का बहुत शौक़ था । आगरा में वो अपनी पतंगबाज़ी के
लिये दोस्तों में मशहूर थे । उसी ज़माने में (1810-12) ग़ालिब ने पतंग पर एक मसनवी
लिखी जो कि बड़ी दिलचस्प है । इसका आख़िरी शे’र ग़ालिब का नहीं है बल्कि फ़ारसी
के किसी उस्ताद का है और पतंग से सम्बंधित नहीं है । लेकिन ग़ालिब ने बड़ी ख़ूबी से इस
शे’र को पतंग की ज़बान से अदा किया है । आख़िरी शे’र का मतलब है “मेरे दोस्त ने मेरी
गरदन में एक डोर पहना दी है और अब जहाँ उसका जी चाहता है मुझे खींच ले जाता है"

                                          मसनवी:

एक दिन मिस्ल-ए-पतंग-ए-काग़ज़ी, ले के दिल सर रिश्तः-ए-आज़ादगी,
ख़ुद ब ख़ुद कुछ हम से कनियाने लगा, इस क़दर बिगड़ा कि सर खाने लगा,
मैं कहा ऐ दिल हवा-ए-दिल बराँ, बस कि तेरे हक़ में कहती है ज़बाँ,
पेच में इनके न आना ज़ीनहार, ये नहीं हैंगे किसू के यार-ए-ग़ार,
गोरे पिंडे  पर न कर इनके नज़र, खींच लेते हैं ये डोरे डाल कर,
अब तो मिल जाएगी तेरी इन से साँठ, लेकिन आख़िर को पड़ेगी ऐसी गाँठ,
सख़्त मुश्किल होगा सुलझाना तुझे, क़हर है दिल इनसे उलझाना तुझे,
ये जो महफ़िल में बढ़ाते हैं तुझे, भूल मत उस पर उड़ाते हैं तुझे,
एक दिन तुझ को लड़ा देंगे कहीं, मुफ़्त में नाहक़ कटा देंगे कहीं,
दिल ने सुन कर काँप कर खा पेचो ताब, ग़ोते में जा कर दिया कट कर जवाब,
“रिश्तए दर गरदनम अफ़गंदः दोस्त,
मी कशद हर जा कि ख़ातिरख़्वाह ओस्त”

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