बुधवार, 4 मार्च 2020

दिल मेरा सोज़े-निहाँ से बे-महाबा जल गया (1813-1816)





दिल मेरा सोज़े-निहाँ से बे-महाबा जल गया,
आतिशे-ख़ामोश के मानिन्द गोया जल गया

आग इक अन्दर ही अन्दर से जला कर रख गई,
रुह में पैदा हुई और जिस्म में दिल तक गई

दिल में ज़ौके-वस्लो यादे-यार तक बाक़ी नहीं,
आग इस घर में लगी ऐसी कि जो था जल गया  

दिल में मिलने की तमन्ना है न उनकी याद है,
जो भी था इस घर में वो जल कर हुआ बर्बाद है

मैं अदम से भी परे हूँ वर्न: ग़ाफिल बराहा,
मेरी आहे-आतशीं से बाले-अनक़ा जल गया  

अब कहाँ वो बात; मैं मिट कर उठा हर चाह से,
कल्पना के पंख जल जाते थे मेरी आह से

अर्ज़ कीजे जौहरे-अन्देशः की गर्मी कहाँ,
कुछ ख़याल आया था वहशत का कि सहरा जल गया

विरह व्याकुल मैं, हुआ बेकल, चला मरुस्थल गया,
मेरे मन की आग से, मरुस्थल भी लेकिन जल गया


 दिल नहीं, तुमको दिखाता वर्न: दाग़ों की बहार,
इस चराग़ाँ का करुँ क्या, कारफ़र्मा जल गया

मिट गया दिल, दाग़ रौशन मिट गए दिल के सभी,
वर्न: इक दीपावली तुझको दिखाता मैं कभी

मैं हूँ और अफ़सुर्दगी की आरज़ूग़ालिब”, कि दिल,
देख कर तर्ज़े-तपाके- अहले दुनिया जल गया  

दिल बुझा है हर क़दम पर इक छलावा देख कर,
दुनिया वालों में दिखावा ही दिखावा देख कर

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