दिल मेरा सोज़े-निहाँ
से बे-महाबा जल गया,
आतिशे-ख़ामोश
के मानिन्द गोया जल गया ।
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आग
इक अन्दर ही अन्दर से जला कर रख गई,
रुह
में पैदा हुई और जिस्म में दिल तक गई ।
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दिल में ज़ौके-वस्लो
यादे-यार तक बाक़ी नहीं,
आग इस घर में
लगी ऐसी कि जो था जल गया ।
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दिल
में मिलने की तमन्ना है न उनकी याद है,
जो
भी था इस घर में वो जल कर हुआ बर्बाद है ।
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मैं अदम से
भी परे हूँ वर्न:
ग़ाफिल बराहा,
मेरी आहे-आतशीं
से बाले-अनक़ा जल गया ।
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अब
कहाँ वो बात; मैं मिट कर उठा हर चाह से,
कल्पना
के पंख जल जाते थे मेरी आह से ।
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अर्ज़ कीजे
जौहरे-अन्देशः की गर्मी कहाँ,
कुछ ख़याल आया
था वहशत का कि सहरा जल गया ।
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विरह
व्याकुल मैं, हुआ बेकल, चला मरुस्थल गया,
मेरे
मन की आग से, मरुस्थल भी लेकिन जल गया ।
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इस चराग़ाँ
का करुँ क्या,
कारफ़र्मा जल गया ।
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मिट
गया दिल, दाग़ रौशन मिट गए दिल के सभी,
वर्न: इक दीपावली तुझको दिखाता मैं कभी ।
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मैं हूँ और
अफ़सुर्दगी की आरज़ू
“ग़ालिब”, कि दिल,
देख कर तर्ज़े-तपाके-
अहले दुनिया जल गया ।
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दिल
बुझा है हर क़दम पर इक छलावा देख कर,
दुनिया
वालों में दिखावा ही दिखावा देख कर ।
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