जहाँ तेरा नक़्शे क़दम देखते हैं,
ख़याबाँ ख़याबाँ इरम देखते हैं.
जहाँ तेरा पद-चिन्ह हमको दिखा है,
वहीं स्वर्ग का नाम हमने लिखा है.
तेरे सर्व क़ामत से यक क़द्द-ए-आदम,
क़यामत के फ़ितने को कम देखते हैं.
स्वयं जागने को तेरा रूप माँगे,
प्रलय का उपद्रव है क्या तेरे आगे.
तमाशा कर ऐ मह्वे आईनादारी,
तुझे किस तमन्ना से हम देखते हैं.
जो दर्पण में पाते हो दिलकश नज़ारे,
हमें देख लो हम हैं दर्पण तुम्हारे.
सुराग़े-तुफ़े-नालः ले दाग़े-दिल से,
कि शब-रौ का नक़्शे-क़दम देखते हैं.
बताते हैं पद-चिन्ह कुछ जैसे मिल कर,
विलापों की गर्मी छपी मेरे दिल पर.
बना कर फक़ीरों का हम भेस ग़ालिब,
तमाशा-ए-अह्ले-करम देखते हैं.
हूँ धारण किये मैं भिखारी की काया,
कि देखूँ कृपा करने वालों की माया.
कमाल है! गालिब के व्यक्तित्व को तो जानता ही न था मैं। आपकी पोस्टों के माध्यम से प्रकाण्ड दार्शनिक का प्रकटन हो रहा है...
जवाब देंहटाएंआप की हौसला अफ़्ज़ाई का स्वागत है. हर टिप्पणी उर्जा प्रदान करती है....
हटाएं