गुरुवार, 30 जनवरी 2014

ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के..

मैं मर जाऊँ मेरे दुश्मन ही जी लें 
ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के,
हम रहें यूँ तश्नः-लब पैग़ाम के.

मेरे दुश्मन तुम्हारे संग पी लें,
मैं मर जाऊँ, मेरे दुश्मन ही जी लें.

ख़स्तगी का तुम से क्या शिकवा कि ये,
हथकंडे हैं चर्ख़-ए-नीली फ़ाम के.

सुनाऊँ हाल पतला अब तुम्हें क्या,                                                      
मेरी क़िस्मत में हसरत थी हमेशा.

रात पी ज़मज़म पे मय और सुबह्दम,
धोये धब्बे जामः-ए-एहराम के.

तीर्थ में भी पाप कर सोते रहे,
 जागने पर पाप को धोते रहे.



दिल को आँखों ने फँसाया क्या मगर,
ये भी हल्क़े हैं तुम्हारे दाम के.

मेरी आँखें भी तुम्हारे जाल हैं,
तुम को देखा, दिल फँसा, बेहाल हैं.

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