रविवार, 22 जून 2014

न गुले नग़मा हूँ.....

न गुल-ए-नग़मा हूँ ना परदा-ए-साज़,
मैं हूँ अपनी शिकस्त की आवाज़.
                                         
ना कोई राग हूँ न कोई तान,
टूटना ही हुई मेरी पहचान.

तू और आराइशे ख़ुम-ए-काकुल,
मैं और अंदेशःहा-ए-दूर दराज़.

तू है और ज़ुल्फ की सजावट है,
मैं हूँ और बिजलियों की आहट है.

लाफ़े-तम्कीं फ़रेबे सादा दिली,
हम हैं और राज़हा-ए-सीना गुदाज़.

प्रेम का दर्प ! मूर्खता दिल की !
ताड़ सा बोझ और जगह तिल की.


हूँ गिरफ़्तारे उल्फ़ते सय्याद,
वर्ना बाक़ी है ताक़ते परवाज़.

प्रेम बंधन की ले लिया भिक्षा,
अब नहीं है उड़ान की इच्छा,

वो भी दिन हो कि उस सितमगर से,
नाज़ खींचूँ बजाये हसरते नाज़.

उसके नख़रे उठाऊँ, वो दिन आये
सच हो सपना मेरा कभी तो हाए!          (शेष अगली पोस्ट में)

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