Facebook के माध्यम से निम्न्लिखित आलोचना प्राप्त हुई थी.
“Ghalib ahmaq nahin tha. Apni aqalmandi se uske shayri ka
kabada nikalne walon se hoshiiyaar”
आलोचक ने आलोचना के साथ साथ अपनी नाराज़गी का भी कड़े शब्दों में इज़्हार
करते हुए मेरे जैसे रूपांतरण करने वाले को ‘अहमक़’ की उपाधि से सुशोभित किया है. मैं आलोचक की भावनाओं
की क़द्र करता हूँ. कोई ग़ालिब के बारे में इतना संवेदनशील हो कि ग़ालिब की किसी रचना
के रूपांतरण को उनकी “शायरी का कबाड़ा निकालना” समझे तो इसमें कोई ताज्जुब नहीं है.
इतिहास गवाह है कि अनुवादकों को अक्सर कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा है. बहुत पह्ले
की बात है कि बंगाल के एक सूफ़ी ने कुछ सूफ़ी साहित्य का अनुवाद फ़ारसी से बंगाली में
किया था जिसकी कड़ी आलोचना हुई. अनुवादक ने लिखा है उसे मालूम नहीं कि उसके काम को लोग
अच्छा मानेंगे या बुरा पर उसने इस काम को अच्छा समझ के किया है और करता रहेगा. मैं
भी रूपांतरण का काम अच्छा समझ के कर रहा हूँ और करता रहूंगा. इतना ज़रूर कह्ना चाहूंगा
कि ग़ालिब की बे-इंतहा इज़्ज़त करता हूँ और यही कारण है कि मैंने उनके काम को उनके चाहने
वालों तक पहुंचाने के लिये इस काम का बीड़ा उठाया है. ग़ालिब के संवेदनशील प्रशंसकों
से क्षमा याचना करते हुए अपने कार्य को करते रह्ने की प्रतिबद्धता दोहराता हूँ.
निन्दक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाय।
जवाब देंहटाएंआप से पूरी तरह सहमत हूँ.
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