दाएम
पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूँ मैं
ख़ाक ऐसी ज़िन्दगी पे कि पत्थर नहीं हूँ मैं
ख़ाक ऐसी ज़िन्दगी पे कि पत्थर नहीं हूँ मैं
क्यूँ तेरे क़दमों
में मेरा सर नहीं,
क्यूँ तेरी चौखट का मैं पत्थर नहीं
क्यूँ
गर्दिश-ए-मुदाम से घबरा न जाये दिल?
इन्सान हूँ, पियालः-ओ-साग़र नहीं हूँ मैं.
इन्सान हूँ, पियालः-ओ-साग़र नहीं हूँ मैं.
क्यूँ ना चकरा
जाऊँ, मैं हाला नहीं,
क्या करूँ इंसान
हूँ प्याला नहीं.
या रब! ज़माना
मुझ को मिटाता है किस लिये
लौह-ए-जहां पे हर्फ़-ए-मुक़र्रर नहीं हूँ मैं
लौह-ए-जहां पे हर्फ़-ए-मुक़र्रर नहीं हूँ मैं
मिट रहा हूँ, सोच कर स्तब्ध हूँ,
क्या मैं भूले से
लिखा इक शब्द हूँ?
हद चाहिये सज़ा
में उक़ूबत के वास्ते
आख़िर गुनाहगार हूँ, काफ़िर नहीं हूँ मैं
आख़िर गुनाहगार हूँ, काफ़िर नहीं हूँ मैं
हो सज़ा में कष्ट
की सीमा कहीं,
हूँ तो मुजरिम, पर मैं विद्रोही नहीं. (शेष शे’र अगले
पोस्ट में)
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