है किस क़दर हलाक-ए फ़रेब-ए वफ़ा-ए गुल
(Original काले तथा रूपांतरण लाल रंग में)
है किस क़दर हलाक-ए फ़रेब-ए वफ़ा-ए गुल
बुलबुल के कार-ओ-बार पे हैं ख़ंदः-हाए-गुल
बुलबुल के कार-ओ-बार पे हैं ख़ंदः-हाए-गुल
बुलबुल का सोचना कि उसे
गुल वफ़ा करे,
ये देख कर हंसे न कोई गुल
तो क्या करे.
ईजाद करती है उसे तेरे लिये बहार
मेरा रक़ीब है नफ़स-ए इत्र-सा-ए गुल
तुझ को लुभा रही है वो इतना
कि मैं जलूं,
फूलों कि ख़ुश्बू ले के बहार
आये वर्ना क्यूँ.
शरमिंदा रखते हैं मुझे बाद-ए बहार से
मीना-ए बे-शराब-ओ-दिल-ए बे-हवा-ए गुल
ना जाम में शराब ना दिल
में कोई उमंग,
ऐसी बहार से कहो मुझको
न करे तंग.
तेरे ही जलवे का है यह धोका कि आज तक
बे-इख़तियार दौड़े है गुल दर क़फ़ा-ए गुल
खिलते ही जा रहे हैं लगातार
अब तलक,
फूलों को है तमन्ना दिखे
तेरी एक झलक.
ग़ालिब मुझे है उस से हम-आग़ोशी आरज़ू
जिस का ख़याल है गुल-ए जेब-ए क़बा-ए गुल
ग़ालिब मेरा नसीब कभी उस
से मिलाये,
हैं किसकी याद फूल भी सीनों
में छुपाये
(इस रचना के कुछ शे’र रूपांतरण
के लिये शेष)
बहुत खूबसूरत.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब,खुबसूरत- ग़ालिब की शायरी मै फारसी शब्द,समझ नही आते थे.अब उर्दू अनुवाद दिलो-दिमाग पर बाहार बन उतरेगा.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद.प्रोत्साहन के लिये आभारी हूँ.
हटाएंबहुत खूब,खुबसूरत- ग़ालिब की शायरी मै फारसी शब्द,समझ नही आते थे.अब उर्दू अनुवाद दिलो-दिमाग पर बाहार बन उतरेगा.
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