शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

है किस क़दर हलाक-ए फ़रेब-ए वफ़ा-ए गुल

है किस क़दर हलाक-ए फ़रेब-ए वफ़ा-ए गुल

(Original काले तथा रूपांतरण लाल रंग में)

है किस क़दर हलाक-ए फ़रेब-ए वफ़ा-ए गुल
बुलबुल के कार-ओ-बार पे हैं ख़ंदः-हाए-गुल
बुलबुल का सोचना कि उसे गुल वफ़ा करे,
ये देख कर हंसे न कोई गुल तो क्या करे.

ईजाद करती है उसे तेरे लिये बहार
मेरा रक़ीब है नफ़स-ए  इत्र-सा-ए गुल
तुझ को लुभा रही है वो इतना कि मैं जलूं,
फूलों कि ख़ुश्बू ले के बहार आये वर्ना क्यूँ.

शरमिंदा रखते हैं मुझे बाद-ए बहार से
मीना-ए बे-शराब-ओ-दिल-ए बे-हवा-ए गुल
ना जाम में शराब ना दिल में कोई उमंग,
ऐसी बहार से कहो मुझको न करे तंग.

तेरे ही जलवे का है यह धोका कि आज तक
बे-इख़तियार दौड़े है गुल दर क़फ़ा-ए गुल
खिलते ही जा रहे हैं लगातार अब तलक,
फूलों को है तमन्ना दिखे तेरी एक झलक.

ग़ालिब मुझे है उस से हम-आग़ोशी आरज़ू
जिस का ख़याल है गुल-ए जेब-ए क़बा-ए गुल
ग़ालिब मेरा नसीब कभी उस से मिलाये,
हैं किसकी याद फूल भी सीनों में छुपाये

(इस रचना के कुछ शेर रूपांतरण के लिये शेष)


4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब,खुबसूरत- ग़ालिब की शायरी मै फारसी शब्द,समझ नही आते थे.अब उर्दू अनुवाद दिलो-दिमाग पर बाहार बन उतरेगा.

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    1. धन्यवाद.प्रोत्साहन के लिये आभारी हूँ.

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  2. बहुत खूब,खुबसूरत- ग़ालिब की शायरी मै फारसी शब्द,समझ नही आते थे.अब उर्दू अनुवाद दिलो-दिमाग पर बाहार बन उतरेगा.

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