शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

बाज़ीचः-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे

बाज़ीचः-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे
(इस रचना के कुछ अन्य शे'र अगली पोस्ट में....)

चलने से मेरे धूल के उठते हैं बवंडर


बाज़ीचः-ए-अत्फ़ाल है दुनिया, मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा, मेरे आगे

बच्चों का खेल, जग की यह काया, हूँ जानता,
दिन-रात जो भी देखूँ , वो माया हूँ मानता.

जुज़ नाम, नहीं सूरत-ए-आ़लम मुझे मंज़ूर 
जुज़ वहम
, नहीं हस्ती-ए-अशया, मेरे आगे
                                              
संसार का अस्तित्व तो बस, है भी नहीं भी,
क़दमों में मेरे शीष नवाता है समुंदर
भ्रम है वो हर इक चीज़ जो दिखती है कहीं भी. 

होता है निहाँ गर्द में सहरा मेरे होते 
घिसता है जबीं
 ख़ाक पे दरिया, मेरे आगे 

चलने से मेरे धूल के उठते हैं बवंडर,
क़दमों में मेरे शीष नवाता है समुंदर 

सच कहते हो, ख़ुदबीन-ओ-ख़ुदआरा हूँ,क्यूँ न हूँ 
बैठा है बुत-ए-आईनः-सीमा, मेरे आगे 

मैं ख़ुद को निहारूँ कि मेरे भाग्य हैं जागे,
दर्पण की तरह तू जो है बैठा मेरे आगे.

फिर देखिये अन्दाज़-ए-गुलअफ़्शानी-ए-गुफ़्तार 
रख दे कोई पैमाना-ओ-सहबा
, मेरे आगे 

मद्यपान का सामान मेरे सामने ले आओ,
फिर मुख से मेरे फूल झड़ें ना तो बताओ



5 टिप्‍पणियां:

  1. "चलने से मेरे धूल के उठते हैं बवंडर,
    क़दमों में मेरे शीष नवाता है समुंदर "
    वाह! क्या आत्मविश्वास से परिपूर्ण कथ्य है कवि का!

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  2. बहुत खूबसूरत,

    लेकिन क्‍या गालिब का अंदाज भी यही था, या वे नश्‍वरता पर कुछ कह रहे थे...

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    1. टिप्पणी के लिये धन्यवाद, जोशी साहब. इस शे'र का सार तो मेरी समझ में वही आया जैसा कि रूपांतरित कर पाया हूँ पर आप की टिप्प्णी के संदर्भ में फिर से विचार करूँग.
      धन्यवाद.

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